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नहीं मिलते वो अब तो क्या बात है - अहमद हमदानी कविता - Darsaal

नहीं मिलते वो अब तो क्या बात है

नहीं मिलते वो अब तो क्या बात है

यहाँ ख़ुद से भी कब मुलाक़ात हे

तिरे ध्यान के सब उजाले गए

बस अब हम हैं और दुख भरी रात है

हमारी तरफ़ भी कभी इक निगाह

हमें भी बहुत नश्शा-ए-ज़ात है

सुलगता हुआ दिन जो कट भी गया

तो फिर आँच देती हुई रात है

शिकायत किसी से तो किया थी मगर

गिला एक रस्म-ए-ख़राबात है

नया दुख तो मिलता है किस को यहाँ

मगर ग़म की हर शब नई रात है

हर इक शाम ताज़ा उमीद-ए-विसाल

हर इक रोज़ रोज़-ए-मुकाफ़ात है

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