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मुँह अँधेरे घर से निकले फिर थे हंगामे बहुत - अहमद हमदानी कविता - Darsaal

मुँह अँधेरे घर से निकले फिर थे हंगामे बहुत

मुँह अँधेरे घर से निकले फिर थे हंगामे बहुत

दिन ढला तन्हा हुए और रात भर पिघले बहुत

रंज के अंधे कुएँ में रात अब कैसे कटे

देखने को दिन में देखे चाँद से चेहरे बहुत

फिर भी हम इक दूसरे से बद-गुमाँ क्या क्या रहे

झूट हम ने भी न बोला तुम भी थे सच्चे बहुत

था इरादा उन के घर से बच के हम निकलें मगर

हर क़दम पर उन के घर के रास्ते आए बहुत

इन दिनों रहते हैं लोगों से हमें क्या क्या गिले

और लगते भी हैं हम को लोग सब अच्छे बहुत

पेड़ अपने दश्त में अब हम लगा कर क्या करें

धूप ने फैला दिए हैं दूर तक साए बहुत

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