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पर्दा-ए-महमिल उठे तो राज़-ए-वीराना खुले - अहमद फ़रीद कविता - Darsaal

पर्दा-ए-महमिल उठे तो राज़-ए-वीराना खुले

पर्दा-ए-महमिल उठे तो राज़-ए-वीराना खुले

राज़-ए-वीराना खुले तब जा के दीवाना खुले

बार-ए-हफ़्त-अफ़्लाक भी इस ना-तवाँ शाने पे है

ज़ुल्फ़ से कहना कि आहिस्ता सर-ए-शाना खुले

क़ामत-ए-परवाना क़द्द-ए-शम्अ से कम है अभी

कीमिया हो ले ज़रा तो क़द्द-ए-परवाना खुले

जब तिलिस्म-ए-आईना ख़ुद हो नक़ाब-ए-आईना

चश्म पर कैसे हिजाब-ए-आईना-ख़ाना खुले

इस क़दर मय उस के पैमाने में आती जाएगी

जिस क़दर भी जिस पे तह-दारी-ए-पैमाना खुले

आजिज़ी ओ उस्तुवारी मस्ती ओ वारफ़्तगी

किस पे अब जुज़-शम्अ बेताबी-ए-परवाना खुले

सब पे खुलने की हमें ही आरज़ू शायद न थी

एक दो होंगे कि हम जिन पर फ़क़ीराना खुले

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