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मैं और तू - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

मैं और तू

रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती

कोई घटता हुआ बढ़ता हुआ बेकल साया

एक दीवार से कहता कि मिरे साथ चलो

और ज़ंजीर-ए-रिफ़ाक़त से गुरेज़ाँ दीवार

अपने पिंदार के नश्शे में सदा इस्तादा

ख़्वाहिश-ए-हमदम-ए-देरीना पे हँस देती थी

कौन दीवार किसी साए के हम-राह चली

कौन दीवार हमेशा मगर इस्तादा रही

वक़्त दीवार का साथी है न साए का रफ़ीक़

और अब संग-ओ-गिल-ओ-ख़िश्त के मलबे के तले

उसी दीवार का पिंदार है रेज़ा रेज़ा

धूप निकली है मगर जाने कहाँ है साया

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