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ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें

ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें

उधर भी कौन है दरिया के पार क्या उतरें

तमाम दौलत-ए-जाँ हार दी मोहब्बत में

जो ज़िंदगी से लिए थे उधार क्या उतरें

हज़ार जाम से टकरा के जाम ख़ाली हों

जो आ गए हैं दिलों में ग़ुबार क्या उतरें

बसान-ए-ख़ाक सर-ए-कू-ए-यार बैठे हैं

अब इस मक़ाम से हम ख़ाकसार क्या उतरें

न इत्र ओ ऊद न जाम ओ सुबू न साज़ ओ सुरूर

फ़क़ीर-ए-शहर के घर शहरयार क्या उतरें

हमें मजाल नहीं है कि बाम तक पहुँचें

उन्हें ये आर सर-ए-रहगुज़ार क्या उतरें

जो ज़ख़्म दाग़ बने हैं वो भर गए थे 'फ़राज़'

जो दाग़ ज़ख़्म बने हैं वो यार क्या उतरें

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