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वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले

वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले

मुझ से या-रब मिरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले

अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने

दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले

मैं तो उस सुब्ह-ए-दरख़्शाँ को तवंगर जानूँ

जो मिरे शहर से कश्कोल-ए-गदाई ले ले

तू ग़नी है मगर इतनी हैं शराइत तेरी

वो मोहब्बत जो हमें रास न आई ले ले

ऐसा नादान ख़रीदार भी कोई होगा

जो तिरे ग़म के एवज़ सारी ख़ुदाई ले ले

अपने दीवान को गलियों में लिए फिरता हूँ

है कोई जो हुनर-ए-ज़ख़्म-नुमाई ले ले

मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर

अपने बंदों से तो पिंदार-ए-ख़ुदाई ले ले

और क्या नज़्र करूँ ऐ ग़म-ए-दिलदार-ए-फ़राज़

ज़िंदगी जो ग़म-ए-दुनिया से बचाई ले ले

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