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उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ

अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ

ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़

ऐ मर्ग-ए-ना-गहाँ तिरा आना बहुत हुआ

हम ख़ुल्द से निकल तो गए हैं पर ऐ ख़ुदा

इतने से वाक़िए का फ़साना बहुत हुआ

अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी

उस से ज़रा सा रब्त बढ़ाना बहुत हुआ

अब क्यूँ न ज़िंदगी पे मोहब्बत को वार दें

इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ

अब तक तो दिल का दिल से तआ'रुफ़ न हो सका

माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ

क्या क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल

ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ

कहता था नासेहों से मिरे मुँह न आइयो

फिर क्या था एक हू का बहाना बहुत हुआ

लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र

अहमद-'फ़राज़' तुझ से कहा न बहुत हुआ

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