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था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी

था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी

इश्क़ ज़िंदा नहीं रहता है ज़ियादा यूँ भी

इक तो इन आँखों में नश्शा था बला का उस पर

हम को मर्ग़ूब है कैफ़िय्यत-ए-बादा यूँ भी

नामा-बर उस से न अहवाल हमारा कहना

वो तुनुक-ख़ू है बिगड़ जाए मबादा यूँ भी

सो गए हम भी कि बे-कार था रस्ता तकना

उस को आना ही नहीं था शब-ए-वा'दा यूँ भी

कुछ तो वो हुस्न पशेमाँ है जफ़ा पर अपनी

और कुछ उस के लिए दिल था कुशादा यूँ भी

कूच कर जाते हैं हम कू-ए-मोहब्बत से 'फ़राज़'

इन दिनों चाक-ए-गरेबाँ हैं ज़ियादा यूँ भी

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