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तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को

कि ख़ुद जुदा है तू मुझ से न कर जुदा मुझ को

वो कपकपाते हुए होंट मेरे शाने पर

वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझ को

चटख़ उठा हो सुलगती चटान की सूरत

पुकार अब तू मिरे देर-आश्ना मुझ को

तुझे तराश के मैं सख़्त मुन्फ़इल हूँ कि लोग

तुझे सनम तो समझने लगे ख़ुदा मुझ को

ये और बात कि अक्सर दमक उठा चेहरा

कभी कभी यही शो'ला बुझा गया मुझ को

ये क़ुर्बतें ही तो वजह-ए-फ़िराक़ ठहरी हैं

बहुत अज़ीज़ हैं यारान-ए-बे-वफ़ा मुझ को

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं

वो एक शख़्स कि शाएर बना गया मुझ को

उसे 'फ़राज़' अगर दुख न था बिछड़ने का

तो क्यूँ वो दूर तलक देखता रहा मुझ को

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