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तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ

मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ

तिरे बदन में धड़कने लगा हूँ दिल की तरह

ये और बात कि अब भी तुझे सुनाई न दूँ

ख़ुद अपने आप को परखा तो ये नदामत है

कि अब कभी उसे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई न दूँ

मिरी बक़ा ही मिरी ख़्वाहिश-ए-गुनाह में है

मैं ज़िंदगी को कभी ज़हर-ए-पारसाई न दूँ

जो ठन गई है तो यारी पे हर्फ़ क्यूँ आए

हरीफ़-ए-जाँ को कभी तान-ए-आश्नाई न दूँ

मुझे भी ढूँड कभी महव-ए-आइना-दारी

मैं तेरा अक्स हूँ लेकिन तुझे दिखाई न दूँ

ये हौसला भी बड़ी बात है शिकस्त के बा'द

कि दूसरों को तो इल्ज़ाम-ए-ना-रसाई न दूँ

'फ़राज़' दौलत-ए-दिल है मता-ए-महरूमी

मैं जाम-ए-जम के एवज़ कासा-ए-गदाई न दूँ

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