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सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ

सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ

बड़ा उदास समाँ है क़रीब आ जाओ

न तुम को ख़ुद पे भरोसा न हम को ज़ोम-ए-वफ़ा

न ए'तिबार-ए-जहाँ है क़रीब आ जाओ

रह-ए-तलब में किसी को किसी का ध्यान नहीं

हुजूम-ए-हम-सफ़राँ है क़रीब आ जाओ

जो दश्त-ए-इश्क़ में बिछड़े वो उम्र भर न मिले

यहाँ धुआँ ही धुआँ है क़रीब आ जाओ

ये आँधियाँ हैं तो शहर-ए-वफ़ा की ख़ैर नहीं

ज़माना ख़ाक-फ़िशाँ है क़रीब आ जाओ

फ़क़ीह-ए-शहर की मज्लिस नहीं कि दूर रहो

ये बज़्म-ए-पीर-ए-मुग़ाँ है क़रीब आ जाओ

'फ़राज़' दूर के सूरज ग़ुरूब समझे गए

ये दौर-ए-कम-नज़राँ है क़रीब आ जाओ

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