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क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया

क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया

फिर से बे-सर्फ़ा उजड़ जाने का मौसम आया

कुंज-ए-ग़ुर्बत मैं कभी गोशा-ए-ज़िंदाँ में थे हम

जान-ए-जाँ जब भी तिरे आने का मौसम आया

अब लहू रोने की ख़्वाहिश न लहू होने की

दिल-ए-ज़िंदा तिरे मर जाने का मौसम आया

कूचा-ए-यार से हर फ़स्ल में गुज़रे हैं मगर

शायद अब जाँ से गुज़र जाने का मौसम आया

कोई ज़ंजीर कोई हर्फ़-ए-ख़िरद ले आया

फ़स्ल-ए-गुल आई कि दीवाने का मौसम आया

सैल-ए-ख़ूँ शहर की गलियों में दर आया है 'फ़राज़'

और तू ख़ुश है कि घर जाने का मौसम आया

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