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क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा

क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा

जैसा भी तू था उस से तो बढ़ कर नहीं कहा

उस से मिले तो ज़ोम-ए-तकल्लुम के बावजूद

जो सोच कर गए वही अक्सर नहीं कहा

इतनी मुरव्वतें तो कहाँ दुश्मनों में थीं

यारों ने जो कहा मिरे मुँह पर नहीं कहा

मुझ सा गुनाहगार सर-ए-दार कह गया

वाइज़ ने जो सुख़न सर-ए-मिंबर नहीं कहा

बरहम बस इस ख़ता पे अमीरान-ए-शहर हैं

इन जौहड़ों को मैं ने समुंदर नहीं कहा

ये लोग मेरी फ़र्द-ए-अमल देखते हैं क्यूँ

मैं ने 'फ़राज़' ख़ुद को पयम्बर नहीं कहा

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