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न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए

न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए

फिर आज दुख भी ज़ियादा है क्या किया जाए

हमें भी अर्ज़-ए-तमन्ना का ढब नहीं आता

मिज़ाज-ए-यार भी सादा है क्या किया जाए

कुछ अपने दोस्त भी तरकश-ब-दोश फिरते हैं

कुछ अपना दिल भी कुशादा है क्या किया जाए

वो मेहरबाँ है मगर दिल की हिर्स भी कम हो

तलब करम से ज़ियादा है क्या किया जाए

न उस से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ की बात कर पाएँ

न हमदमी का इरादा है क्या किया जाए

सुलूक-ए-यार से दिल डूबने लगा है 'फ़राज़'

मगर ये महफ़िल-ए-आदा है क्या किया जाए

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