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मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का

मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का

बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का

रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई

ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का

कैसे पाया था तुझे फिर किस तरह खोया तुझे

मुझ सा मुंकिर भी तो क़ाएल हो गया तक़दीर का

जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे

मैं ने ये आलम भी देखा है तिरी तस्वीर का

जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर

आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरी तहरीर का

इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या कि ये बे-मेहर लोग

जू-ए-ख़ूँ को नाम दे देते हैं जू-ए-शीर का

जिस को भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है 'फ़राज़'

सिलसिला टूटा नहीं है दर्द की ज़ंजीर का

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