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मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं

मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं

मुख़्तलिफ़ हो के भी सब ज़िंदगियाँ एक सी हैं

कोई क़ासिद हो कि नासेह कोई आशिक़ कि अदू

सब की उस शोख़ से वाबस्तगियाँ एक सी हैं

दश्त-ए-मजनूँ न सही तेशा-ए-फ़रहाद सही

सफ़र-ए-इश्क़ में वामांदगियाँ एक सी हैं

ये अलग बात कि एहसास जुदा हों वर्ना

राहतें एक सी अफ़सुर्दगियाँ एक सी हैं

सूफ़ी ओ रिंद के मस्लक में सही लाख तज़ाद

मस्तियाँ एक सी वारफ़्तगियाँ एक सी हैं

वस्ल हो हिज्र हो क़ुर्बत हो कि दूरी हो 'फ़राज़'

सारी कैफ़िय्यतें सब तिश्नगियाँ एक सी हैं

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