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कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी

कशीदा सर से तवक़्क़ो अबस झुकाव की थी

बिगड़ गया हूँ कि सूरत यही बनाव की थी

वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है

कि सारी बात मोहब्बत में रख-रखाव की थी

वो मुझ से प्यार न करता तो और क्या करता

कि दुश्मनी में भी शिद्दत इसी लगाव की थी

मगर ये दर्द-ए-तलब भी सराब ही निकला

वफ़ा की लहर भी जज़्बात के बहाव की थी

अकेले पार उतर कर ये नाख़ुदा ने कहा

मुसाफ़िरो यही क़िस्मत शिकस्ता नाव की थी

चराग़-ए-जाँ को कहाँ तक बचा के हम रखते

हवा भी तेज़ थी मंज़िल भी चल-चलाव की थी

मैं ज़िंदगी से नबर्द-आज़मा रहा हूँ 'फ़राज़'

मैं जानता था यही राह इक बचाव की थी

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