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जिस्म शो'ला है जभी जामा-ए-सादा पहना - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

जिस्म शो'ला है जभी जामा-ए-सादा पहना

जिस्म शो'ला है जभी जामा-ए-सादा पहना

मेरे सूरज ने भी बादल का लबादा पहना

सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है

ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना

ख़्वाहिशें यूँ ही बरहना हों तो जल-बुझती हैं

अपनी चाहत को कभी कोई इरादा पहना

यार ख़ुश हैं कि उन्हें जामा-ए-एहराम मिला

लोग हँसते हैं कि क़ामत से ज़ियादा पहना

यार-ए-पैमाँ-शिकन आए अगर अब के तो उसे

कोई ज़ंजीर-ए-वफ़ा ऐ शब-ए-व'अदा पहना

ग़ैरत-ए-इश्क़ तो माने थी मगर मैं ने 'फ़राज़'

दोस्त का तौक़ सर-ए-महफ़िल-ए-आदा पहना

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