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जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है

जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है

और फिर इश्क़ वही कोह-ए-गिराँ खेंचता है

किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक

देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है

अहद-ए-फ़ुर्सत में किसी यार-ए-गुज़श्ता का ख़याल

जब भी आता है तो जैसे रग-ए-जाँ खेंचता है

दिल के टुकड़ों को कहाँ जोड़ सका है कोई

फिर भी आवाज़ा-ए-आईना-गराँ खेंचता है

इंतिहा इश्क़ की कोई न हवस की कोई

देखना ये है कि हद कौन कहाँ खेंचता है

खिंचते जाते हैं रसन-बस्ता ग़ुलामों की तरह

जिस तरफ़ क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ खेंचता है

हम तो रहवार-ए-ज़बूँ हैं वो मुक़द्दर का सवार

ख़ुद ही महमेज़ करे ख़ुद ही इनाँ खेंचता है

रिश्ता-ए-तेग़-ओ-गुलू अब भी सलामत है 'फ़राज़'

अब भी मक़्तल की तरफ़ दिल सा जवाँ खेंचता है

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