जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए
जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए
क्या ख़बर कौन कहाँ किस का निशाना बन जाए
इश्क़ ख़ुद अपने रक़ीबों को बहम करता है
हम जिसे प्यार करें जान-ए-ज़माना बन जाए
इतनी शिद्दत से न मिल तू कि जुदाई चाहें
यही क़ुर्बत तिरी दूरी का बहाना बन जाए
जो ग़ज़ल आज तिरे हिज्र में लिक्खी है वो कल
क्या ख़बर अहल-ए-मोहब्बत का तराना बन जाए
करता रहता हूँ फ़राहम मैं ज़र-ए-ज़ख्म कि यूँ
शायद आइंदा ज़मानों का ख़ज़ाना बन जाए
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
अपने ही अहद में इक शख़्स फ़साना बन जाए
(2201) Peoples Rate This