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इश्क़ नश्शा है न जादू जो उतर भी जाए - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

इश्क़ नश्शा है न जादू जो उतर भी जाए

इश्क़ नश्शा है न जादू जो उतर भी जाए

ये तो इक सैल-ए-बला है सो गुज़र भी जाए

तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन कब से अज़ाब-ए-जाँ है

अब तो ये ज़हर रग ओ पय में उतर भी जाए

अब के जिस दश्त-ए-तमन्ना में क़दम रक्खा है

दिल तो क्या चीज़ है इम्काँ है कि सर भी जाए

हम बगूलों की तरह ख़ाक-बसर फिरते हैं

पाँव शल हों तो ये आशोब-ए-सफ़र भी जाए

लुट चुके इश्क़ में इक बार तो फिर इश्क़ करो

किस को मालूम कि तक़दीर सँवर भी जाए

शहर-ए-जानाँ से परे भी कई दुनियाएँ हैं

है कोई ऐसा मुसाफ़िर जो उधर भी जाए

इस क़दर क़ुर्ब के बाद ऐसे जुदा हो जाना

कोई कम-हौसला इंसाँ हो तो मर भी जाए

एक मुद्दत से मुक़द्दर है ग़रीब-उल-वतनी

कोई परदेस में ना-ख़ुश हो तो घर भी जाए

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