हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वो
हर आश्ना में कहाँ ख़ू-ए-मेहरमाना वो
कि बेवफ़ा था मगर दोस्त था पुराना वो
पुकारते हैं मह-ओ-साल मंज़िलों की तरह
लगा है तौसन-ए-हस्ती को ताज़ियाना वो
हमें भी ग़म-तलबी का नहीं रहा यारा
तिरे भी रंग नहीं गर्दिश-ए-ज़माना वो
अब अपनी ख़्वाहिशें क्या क्या उसे रुलाती हैं
ये बात हम ने कही थी मगर न माना वो
यही कहेंगे कि बस सूरत-आश्नाई थी
जो अहद टूट चुका याद क्या दिलाना वो
इस एक शक्ल में क्या क्या न सूरतें देखीं
निगार था नज़र आया निगार-ख़ाना वो
बुझा दिया है तुझे भी 'फ़राज़' दुनिया ने
कहाँ गया तिरा हर वक़्त मुस्कुराना वो
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