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गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है

गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है

सो शक का फ़ाएदा उस की नज़र को जाता है

हदें वफ़ा की भी आख़िर हवस से मिलती हैं

ये रास्ता भी इधर से उधर को जाता है

ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे

सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है

ये हाल है कि कई रास्ते हैं पेश-ए-नज़र

मगर ख़याल तिरी रह-गुज़र को जाता है

तू 'अनवरी' है न 'ग़ालिब' तो फिर ये क्यूँ है 'फ़राज़'

हर एक सैल-ए-बला तेरे घर को जाता है

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