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ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी

ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी

कि हार मान ली लेकिन मदद नहीं माँगी

हज़ार शुक्र कि हम अहल-ए-हर्फ़-ए-ज़िंदा ने

मुजाविरान-ए-अदब से सनद नहीं माँगी

बहुत है लम्हा-ए-मौजूद का शरफ़ भी मुझे

सो अपने फ़न से बक़ा-ए-अबद नहीं माँगी

क़ुबूल वो जिसे करता वो इल्तिजा नहीं की

दुआ जो वो न करे मुस्तरद नहीं माँगी

मैं अपने जामा-ए-सद-चाक से बहुत ख़ुश हूँ

कभी अबा-ओ-क़बा-ए-ख़िरद नहीं माँगी

शहीद जिस्म सलामत उठाए जाते हैं

जभी तो गोर-कनों से लहद नहीं माँगी

मैं सर-बरहना रहा फिर भी सर-कशीदा रहा

कभी कुलाह से तौक़ीर-ए-क़द नहीं माँगी

अता-ए-दर्द में वो भी नहीं था दिल का ग़रीब

'फ़राज़' मैं ने भी बख़्शिश में हद नहीं माँगी

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