दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा
दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा
और जब तुझ से मिला टूट के रोया कैसा
ज़िंदगी में भी ग़ज़ल ही का क़रीना रक्खा
ख़्वाब-दर-ख़्वाब तिरे ग़म को पिरोया कैसा
अब तो चेहरों पे भी कत्बों का गुमाँ होता है
आँखें पथराई हुई हैं लब-ए-गोया कैसा
देख अब क़ुर्ब का मौसम भी न सरसब्ज़ लगे
हिज्र ही हिज्र मरासिम में समोया कैसा
एक आँसू था कि दरिया-ए-नदामत था 'फ़राज़'
दिल से बेबाक शनावर को डुबोया कैसा
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