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दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ

दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ

हिज्र फिर हिज्र है विसाल कहाँ

इश्क़ है नाम इंतिहाओं का

इस समुंदर में ए'तिदाल कहाँ

ऐसा नश्शा तो ज़हर में भी न था

ऐ ग़म-ए-दिल तिरी मिसाल कहाँ

हम को भी अपनी पाएमाली का

है मगर इस क़दर मलाल कहाँ

मैं नई दोस्ती के मोड़ पे था

आ गया है तिरा ख़याल कहाँ

दिल कि ख़ुश-फ़हम था सो है वर्ना

तेरे मिलने का एहतिमाल कहाँ

वस्ल ओ हिज्राँ हैं और दुनियाएँ

इन ज़मानों में माह-ओ-साल कहाँ

तुझ को देखा तो लोग हैराँ हैं

आ गया शहर में ग़ज़ाल कहाँ

तुझ पे लिक्खी तो सज गई है ग़ज़ल

आ मिला ख़्वाब से ख़याल कहाँ

अब तो शह मात हो रही है 'फ़राज़'

अब बचाव की कोई चाल कहाँ

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