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चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह

चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह

पलट के देखा तो बैठे हैं नक़्श-ए-पा की तरह

मुझे वफ़ा की तलब है मगर हर इक से नहीं

कोई मिले मगर उस यार-ए-बेवफ़ा की तरह

मिरे वजूद का सहरा है मुंतज़िर कब से

कभी तो आ जरस-ए-ग़ुंचा की सदा की तरह

वो अजनबी था तो क्यूँ मुझ से फेर कर आँखें

गुज़र गया किसी देरीना आश्ना की तरह

कशाँ कशाँ लिए जाती है जानिब-ए-मंज़िल

नफ़स की डोर भी ज़ंजीर-ए-बे-सदा की तरह

'फ़राज़' किस के सितम का गिला करें किस से

कि बे-नियाज़ हुई ख़ल्क़ भी ख़ुदा की तरह

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