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अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है

अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है

हम ने उस के शहर को छोड़ा और आँखों को मूँद लिया है

अपना ये शेवा तो नहीं था अपने ग़म औरों को सौंपें

ख़ुद तो जागते या सोते हैं उस को क्यूँ बे-ख़्वाब किया है

ख़िल्क़त के आवाज़े भी थे बंद उस के दरवाज़े भी थे

फिर भी उस कूचे से गुज़रे फिर भी उस का नाम लिया है

हिज्र की रुत जाँ-लेवा थी पर ग़लत सभी अंदाज़े निकले

ताज़ा रिफ़ाक़त के मौसम तक मैं भी जिया हूँ वो भी जिया है

एक 'फ़राज़' तुम्हीं तन्हा हो जो अब तक दुख के रसिया हो

वर्ना अक्सर दिल वालों ने दर्द का रस्ता छोड़ दिया है

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