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अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम - अहमद फ़राज़ कविता - Darsaal

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम

ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम

सहरा-ए-ज़िंदगी में कोई दूसरा न था

सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएँ हम

इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब

इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम

तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़

आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएँ हम

वो लोग अब कहाँ हैं जो कहते थे कल 'फ़राज़'

हे हे ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएँ हम

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