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वक़्त के हर इक नक़्श का मअ'नी इतना बदला बदला होगा - अहमद फ़क़ीह कविता - Darsaal

वक़्त के हर इक नक़्श का मअ'नी इतना बदला बदला होगा

वक़्त के हर इक नक़्श का मअ'नी इतना बदला बदला होगा

मेरे वहम-ओ-गुमान में कब था इश्क़ का मंज़र ऐसा होगा

आज मुझे अपनी आँखों से उस के क़ुर्ब की ख़ुशबू आई

मेरी नज़र से उस ने शायद अपने-आप को देखा होगा

लम्स के इस कोरे तालाब में चाँद का पहला अक्स तुम्ही हो

कैसे नूर-जहानी सुर में किस किस से वो कहता होगा

सुब्ह सुनहरी क्यूँ है इतनी शाम में इतनी लाली क्यूँ है

वक़्त ने शायद तेरी आँख की शबनम से मुँह धोया होगा

आज मैं आईने में अपनी सूरत तक पहचान न पाया

सोच रहा हूँ मुझ से ज़ियादा कौन इस शहर में तन्हा होगा

छोड़ 'फ़क़ीह' ये होनी का सुर अनहोनी की तान लगाओ

होनी में है कोई हुनर क्या होनी को तो होना होगा

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