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सदियों के अँधेरे में उतारा करे कोई - अहमद फ़क़ीह कविता - Darsaal

सदियों के अँधेरे में उतारा करे कोई

सदियों के अँधेरे में उतारा करे कोई

सूरज को किसी रोज़ हमारा करे कोई

इक ख़ौफ़ सा बस घूमता रहता है सरों में

दुनिया का मिरे घर से नज़ारा करे कोई

रंगों का तसव्वुर भी उड़ा आँख से अब तो

इस शहर में अब कैसे गुज़ारा करे कोई

यूँ दर्द ने उम्मीद के लड़ से मुझे बाँधा

दरियाओं को जिस तरह किनारा करे कोई

ईंधन से हुआ जिन के सफ़र चाँद का मुमकिन

उन के भी तो चूल्हे को सँवारा करे कोई

रातों की हुकूमत में मिरे ख़्वाब का तारा

जीने के लिए जैसे इशारा करे कोई

ये आज भी अपना है 'फ़क़ीह' इस का भी सोचो

किस तक यूँही यादों को सहारा करे कोई

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