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चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से - अहमद फ़क़ीह कविता - Darsaal

चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से

चारागरों ने बाँध दिया मुझ को बख़्त से

छाँव मिली न मुझ को दुआ के दरख़्त से

बैठा था मैं हिसार-ए-फ़लक में ज़मीन पर

दुश्मन ने फ़तह खींच ली मेरी शिकस्त से

मैं भी तो था फ़रेफ़्ता ख़ुद अपने-आप पर

शिकवा करूँ मैं क्या दिल-ए-नर्गिस-परस्त से

गिर्या की सल्तनत मुझे देगी शिकस्त क्या

छीनी है मैं ने ज़िंदगी पानी के तख़्त से

हर्फ़-ए-दुआ पे गोश-बर-आवाज़ हो वो क्यूँ

दिल से कलाम होता है मस्तों के मस्त से

हम्द-ओ-सना सुख़न का नहीं दिल का है रियाज़

कैसे सना करूँ मैं दिल-ए-लख़्त-लख़्त से

अहल-ए-ख़िरद इसे न समझ पाएँगे 'फ़क़ीह'

कुछ मसअले हैं मावरा फ़तह ओ शिकस्त से

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