तू ने भी सारे ज़ख़्म किसी तौर सह लिए
मैं भी बिछड़ के जी ही लिया मर नहीं गया
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इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक
आहन ओ संग को ज़हराब-ए-फ़ना चाट गया
फ़ित्ना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी
बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र
ऐसा इलाज-ए-हब्स-ए-दिल-ए-ज़ार चाहिए
सड़क के पार चला जा रहा है बचता हुआ
दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया
क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
ऐ शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे
ऐसी भी कहाँ बे-सर-ओ-सामानी हुई है