क्या ढूँडने निकली है किसी क़ैस को पागल
इस दर्जा जो ये बाद-ए-बयाबानी हुई है
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तू ने भी सारे ज़ख़्म किसी तौर सह लिए
उन से भी पूछिए कभी अपनी ज़मीं का कर्ब
ऐ शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे
इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक
दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया
मैं तो सोया भी न था क्यूँ ये दर-ए-ख़्वाब गिरा
अब सोचिए तो दाम-ए-तमन्ना में आ गए
धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी
ऐसी भी कहाँ बे-सर-ओ-सामानी हुई है
क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो