इसी लिए तो हार का हुआ नहीं मलाल तक
वो मेरे साथ साथ था उरूज से ज़वाल तक
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फ़ित्ना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
उन से भी पूछिए कभी अपनी ज़मीं का कर्ब
बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र
तू ने भी सारे ज़ख़्म किसी तौर सह लिए
किसे ख़बर कि है क्या क्या ये जान थामे हुए
क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया
मैं तो सोया भी न था क्यूँ ये दर-ए-ख़्वाब गिरा
ऐसी भी कहाँ बे-सर-ओ-सामानी हुई है
ऐसा इलाज-ए-हब्स-ए-दिल-ए-ज़ार चाहिए