बाज़ार-ए-आरज़ू में कटी जा रही है उम्र
हम को ख़रीद ले वो ख़रीदार चाहिए
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Gulzar
Allama Iqbal
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तू ने भी सारे ज़ख़्म किसी तौर सह लिए
सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो
मैं तो सोया भी न था क्यूँ ये दर-ए-ख़्वाब गिरा
दस्तक हवा की सुन के कभी डर नहीं गया
धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी
ऐसी भी कहाँ बे-सर-ओ-सामानी हुई है
ऐ शाम-ए-हिज्र-ए-यार मिरी तू गवाही दे
आहन ओ संग को ज़हराब-ए-फ़ना चाट गया
किसे ख़बर कि है क्या क्या ये जान थामे हुए
ऐसा इलाज-ए-हब्स-ए-दिल-ए-ज़ार चाहिए
फ़ित्ना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं