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इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया - अहमद अज़ीम कविता - Darsaal

इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया

इश्क़ में हो के मुब्तिला दिल ने कमाल कर दिया

यूँ ही सी एक शक्ल को ज़ोहरा जमाल कर दिया

हम को तुम्हारी बज़्म से उठने का कुछ क़लक़ नहीं

जैसा ख़याल हो सका वैसा ख़याल कर दिया

सैल-ए-रवान-ए-उम्र के आगे ठहर सका न कुछ

वक़्त ने मेहर-ए-हुस्न को रू-बा-ज़वाल कर दिया

एक सम-ए-अज़ाब सा फैल गया वजूद में

रोज़-ओ-शब-ए-फ़िराक़ ने जीना मुहाल कर दिया

मेरी ज़बान-ए-ख़ुश्क पर रेत का ज़ाइक़ा सा है

मौसम-ए-बार-शिगाल ने कैसा ये हाल कर दिया

धुँद में खो के रह गईं सूरतें मेहर-ओ-माह सी

वक़्त की गर्द ने उन्हें ख़्वाब-ओ-ख़याल कर दिया

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