लोग हँसते हैं हमें देख के तन्हा तन्हा
आओ बैठें कहीं और उन पे हँसें हम और तुम
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सफ़्हा-ए-ज़ीस्त जब पढूँगा तुम्हें
ख़्वाब का इज़्न था ता'बीर-ए-इजाज़त थी मुझे
ये मिरा वहम तो कुछ और सुना जाता है
ना-रसाई ने अजब तौर सिखाए हैं 'अता'
दोनों के जो दरमियाँ ख़ला है
पहले हम अश्क थे फिर दीदा-ए-नम-नाक हुए
किसी बुज़ुर्ग के बोसे की इक निशानी है
कोई गुमाँ हूँ कोई यक़ीं हूँ कि मैं नहीं हूँ
मैं तेरी रूह में उतरा हुआ मिलूँगा तुझे
हमारा इश्क़ सलामत है यानी हम अभी हैं
हमारी उम्र से बढ़ कर ये बोझ डाला गया
हम ने अव्वल तो कभी उस को पुकारा ही नहीं