हम बहकते हुए आते हैं तिरे दरवाज़े
तेरे दरवाज़े बहकते हुए आते हैं हम
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सफ़्हा-ए-ज़ीस्त जब पढूँगा तुम्हें
ज़िंदगी ख़्वाब है और ख़्वाब भी ऐसा कि मियाँ
उस का बदन है राग सा राग भी एक आग सा
मैं तिरी मानता लेकिन जो मिरा दिल है ना
ताबीर बताई जा चुकी है
पहले हम अश्क थे फिर दीदा-ए-नम-नाक हुए
हुई ग़ज़ल ही न कुछ बात बन सकी हम से
हमें न देखिए हम ग़म के मारे जैसे हैं
हमारा इश्क़ सलामत है यानी हम अभी हैं
कोई गुमाँ हूँ कोई यक़ीं हूँ कि मैं नहीं हूँ
दिल कोई फूल नहीं और सितारा भी नहीं
हम आज हँसते हुए कुछ अलग दिखाई दिए