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वो ज़माना है कि अब कुछ नहीं दीवाने में - अहमद अता कविता - Darsaal

वो ज़माना है कि अब कुछ नहीं दीवाने में

वो ज़माना है कि अब कुछ नहीं दीवाने में

नाम लेता है जुनूँ का कभी अनजाने में

क़िस्मत अपनी है कि हम नौहागरी करते हुए

करें ज़ंजीर-ज़नी दिल के अज़ा-ख़ाने में

क्या हुए लोग पुराने जिन्हें देखा भी नहीं

ऐ ज़माने हमें ताख़ीर हुई आने में

इन शिकस्ता दर-ओ-दीवार की सूरत हम भी

बहुत आसेब-ज़दा होंगे नज़र आने में

अपने आबाई मकानों से पलटते हुए हम

कितने नाज़ाँ हैं कोई दिन रहे वीराने में

हम तो कुछ और तरह होते थे बर्बाद 'अता'

अब तो कुछ और से हालात हैं मय-ख़ाने में

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