बहुत बईद न था मसअलों का हल होना
अना के पाँव से ज़ंजीर हम हटा न सके
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बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
हम तिरे इश्क़ में कुछ ऐसे ठिकाने लग जाएँ
अब किसी ख़्वाब की ताबीर नहीं चाहता मैं
दे के वो सारे इख़्तियार मुझे
ज़मीं वालों की बस्ती में सुकूनत चाहती है
वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं
गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके
किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी
अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में
चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार
ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ न हुआ