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वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं - अहमद अशफ़ाक़ कविता - Darsaal

वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं

वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं

हाँ वही लोग जो गिर्दाब से ना-वाक़िफ़ हैं

ऐसी रातें कि जिन्हें नींद की लज़्ज़त न मिली

ऐसी आँखें जो अभी ख़्वाब से ना-वाक़िफ़ हैं

मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं

मेरी कम-गोई के अस्बाब से ना-वाक़िफ़ हैं

उन से क्या कीजे तवक़्क़ो वो हैं नौ-वारिद-ए-दश्त

दश्त-ए-वहशत के जो आदाब से ना-वाक़िफ़ हैं

वो जो बेगाना-ए-तहज़ीब-ओ-तमद्दुन हैं वो लोग

महफ़िलों के अदब-आदाब से ना-वाक़िफ़ हैं

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