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सब जल गया जलते हुए ख़्वाबों के असर से - अहमद अशफ़ाक़ कविता - Darsaal

सब जल गया जलते हुए ख़्वाबों के असर से

सब जल गया जलते हुए ख़्वाबों के असर से

उठता है धुआँ दिल से निगाहों से जिगर से

आज उस के जनाज़े में है इक शहर सफ़-आरा

कल मर गया जो आदमी तन्हाई के डर से

कब तक गए रिश्तों से निभाता मैं तअ'ल्लुक़

इस बोझ को ऐ दोस्त उतार आया हूँ सर से

जो आइना-ख़ाना मिरी हैरत का सबब है

मुमकिन है मिरे बा'द मिरी दीद को तरसे

इस अहद-ए-ख़िज़ाँ में किसी उम्मीद के मानिंद

पत्थर से निकल आऊँ मगर अब्र तो बरसे

रूठे हुए सूरज को मनाने की लगन में

हम लोग सर-ए-शाम निकल पड़ते हैं घर से

उस शख़्स का अब फिर से खड़ा होना है मुश्किल

इस बार गिरा है वो ज़माने की नज़र से

लगता है कि इस दिल में कोई क़ैद है 'अश्फ़ाक़'

रोने की सदा आती है यादों के खंडर से

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