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दे के वो सारे इख़्तियार मुझे - अहमद अशफ़ाक़ कविता - Darsaal

दे के वो सारे इख़्तियार मुझे

दे के वो सारे इख़्तियार मुझे

और करता है शर्मसार मुझे

ज़ख़्म तरतीब दे रहा हूँ मैं

और कुछ वक़्त दे उधार मुझे

पारसाई का ज़ोम है उन को

कह रहे हैं गुनाहगार मुझे

फ़ासले ये सिमट नहीं सकते

अब परायों में कर शुमार मुझे

दिल के गुलशन में तुम चले आओ

और कर दो सदा-बहार मुझे

तर्क-ए-उल्फ़त के ब'अद भी 'अश्फ़ाक़'

तेरा रहता है इंतिज़ार मुझे

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