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उस ने किया है वादा-ए-फ़र्दा आने दो उस को आए तो - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

उस ने किया है वादा-ए-फ़र्दा आने दो उस को आए तो

उस ने किया है वादा-ए-फ़र्दा आने दो उस को आए तो

नाम बदल देना फिर मेरा लौट के वापस जाए तो

अर्ज़-ए-तमन्ना करेंगे उस से अगर न वो ठुकराए तो

उस से ज़रूर मिलेंगे जा कर पहले हमें बुलाए तो

इज़्ज़त-ए-नफ़्स का है ये तक़ाज़ा हुस्न-ए-सुलूक करें दोनों

उस को हम लब्बैक कहेंगे रस्म-ए-वफ़ा निभाए तो

सफ़्हा-ए-ज़ेहन पे नक़्श है उस का मेरे अभी तक नाज़-ओ-नियाज़

जैसे शरमाता था पहले वैसे ही शरमाए तो

रूठने और मनाने के एहसास में है इक कैफ़-ओ-सुरूर

मैं ने हमेशा उसे मनाया वो भी मुझे मनाए तो

क्यूँ रहता है मुझ से बद-ज़न है जो मिरा मंज़ूर-ए-नज़र

कुछ नहीं आता मेरी समझ में कोई मुझे समझाए तो

ख़ून-ए-जिगर से सींचूँगा गुलज़ार-ए-तमन्ना उस के लिए

बाग़-ए-हयात में गुल-ए-मोहब्बत आ कर मिरे खिलाए तो

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में क्या होगा आसार नुमायाँ हैं जिस के

फ़स्ल-ए-बहार में 'बर्क़ी' अपने दिल की कली मुरझाए तो

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