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तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम मुझ को बनाने वाला - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम मुझ को बनाने वाला

तख़्ता-ए-मश्क़-ए-सितम मुझ को बनाने वाला

था वही रोज़ मिरे ख़्वाब में आने वाला

मुंतशिर कर दिया शीराज़ा-ए-हस्ती जिस ने

ख़ाना-ए-दिल को मिरे था वो सजाने वाला

रोज़ करता रहा वो वादा-ए-फ़र्दा मुझ से

उम्र भर अहद-ए-वफ़ा था जो निभाने वाला

उस ने मंजधार में कश्ती को मिरी छोड़ दिया

था जो तूफ़ान-ए-हवादिस से बचाने वाला

पहले करता था पस-ए-पर्दा मिरी बेख़-कुनी

कामयाबी का मिरी जश्न मनाने वाला

साबिक़ा जिस से पड़ा मस्लहत-अंदेश था वो

''दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला''

मार डाले न ये तन्हाई का एहसास मुझे

मुंतज़िर जिस का था अब वो नहीं आने वाला

जिस से दिल-जूई की उम्मीद थी निकला वो रक़ीब

जिस को देखो है वही मुझ को सताने वाला

ऐश-ओ-इशरत के सदा ख़्वाब दिखाता था उसे

ग़म्ज़ा-ओ-नाज़ से 'बर्क़ी' को लुभाने वाला

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