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सुकून-ए-क़ल्ब किसी को नहीं मयस्सर आज - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

सुकून-ए-क़ल्ब किसी को नहीं मयस्सर आज

सुकून-ए-क़ल्ब किसी को नहीं मयस्सर आज

शिकस्त-ए-ख़्वाब है हर शख़्स का मुक़द्दर आज

है वज़्-ए-हाल मिरी क्यूँ ये बद से बद-तर आज

अमीर-ए-शहर के बदले हुए हैं तेवर आज

हर एक शख़्स है अपने हिसार में महसूर

है सब के दर-पए-आज़ार वो सितमगर आज

किया है गर्दिश-ए-दौराँ ने दर-ब-दर सब को

जो सर में पहले था वो पाँव में है चक्कर आज

समझ रहा था जिसे ख़ैर-ख़्वाह मैं अपना

वही है दुश्मन-ए-जाँ मेरा सब से बढ़ कर आज

फ़सील-ए-शहर के अंदर थे कितने अहल-ए-हुनर

नहीं है जिन से शनासा कोई भी बाहर आज

दिखा रहा है मुझे सब्ज़ बाग़ जो 'बर्क़ी'

वो ले के फिरता है क्यूँ आस्तीं में ख़ंजर आज

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