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नज़र बचा के वो हम से गुज़र गए चुप-चाप - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

नज़र बचा के वो हम से गुज़र गए चुप-चाप

नज़र बचा के वो हम से गुज़र गए चुप-चाप

अभी यहीं थे न जाने किधर गए चुप-चाप

हुई ख़बर भी न हम को कब आए और गए

निगाह-ए-नाज़ से दिल में उतर गए चुप-चाप

दिखाई एक झलक और हो गए रू-पोश

तमाम ख़्वाब अचानक बिखर गए चुप-चाप

ये देखने के लिए मुंतज़िर हैं क्या वो भी

दयार-ए-शौक़ में हम भी ठहर गए चुप-चाप

करेंगे ऐसा वो इस का न था हमें एहसास

वो क़ौल-ओ-फ़े'अल से अपने मुकर गए चुप-चाप

फ़सील-ए-शहर के बाहर नहीं किसी को ख़बर

बहुत से अहल-ए-हुनर यूँही मर गए चुप-चाप

दिखा रहे थे हमें सब्ज़ बाग़ वो अब तक

उन्हें जो करना था 'बर्क़ी' वो कर गए चुप-चाप

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