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कर के असीर-ए-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा मुझे - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

कर के असीर-ए-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा मुझे

कर के असीर-ए-ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा मुझे

ऐ दिल-नवाज़ तू ने ये क्या दे दिया मुझे

जाना था इतनी जल्द तो आया था किस लिए

एक एक पल है हिज्र का सब्र-आज़मा मुझे

बुझने लगी है शम्-ए-शबिस्तान-ए-आरज़ू

अब सूझता नहीं है कोई रास्ता मुझे

आँखें थीं फ़र्श-ए-राह तुम्हारे लिए सदा

तुम आस पास हो यहीं ऐसा लगा मुझे

ये दर्द-ए-दिल है मेरे लिए अब वबाल-ए-जाँ

मिलता नहीं कहीं कोई दर्द-आश्ना मुझे

कश्ती-ए-दिल का सौंप दिया जिस को नज़्म-ओ-नस्क़

देता रहा फ़रेब वही नाख़ुदा मुझे

रहज़न से बढ़ के उस का रवय्या था मेरे साथ

पहली निगाह में जो लगा रहनुमा मुझे

अब मैं हूँ और ख़्वाब-ए-परेशाँ है मेरे साथ

कितना पड़ेगा और अभी जागना मुझे

क्या ये जुनून-ए-शौक़ गुनाह-ए-अज़ीम है

किस जुर्म की मिली है ये आख़िर सज़ा मुझे

'बर्क़ी' न हो उदास सर-ए-रहगुज़र है वो

पैग़ाम दे गई है ये बाद-ए-सबा मुझे

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