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इब्न-ए-आदम बरसर पैकार है - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

इब्न-ए-आदम बरसर पैकार है

इब्न-ए-आदम बरसर पैकार है

गर्म ज़ुल्म-ओ-जौर का बाज़ार है

दनदनाते फिर रहे हैं शर-पसंद

कौन आख़िर इस का ज़िम्मेदार है

बो रहा है बुग़्ज़ व नफ़रत के वो बीज

जिस की अपनी ज़ेहनियत बीमार है

है अज़ीज़ अपना उसे शख़्सी मफ़ाद

मस्लहत-बीं आज का फ़नकार है

ख़ून-ए-इंसाँ की तिजारत के लिए

जिस को अपना फ़ाएदा दरकार है

करता है बरहम निज़ाम ज़िंदगी

सिर्फ़ माल-ओ-ज़र से उस को प्यार है

देख कर चलिए ज़रा दाम-ए-फ़रेब

वो शिकारी दरपै-ए-आज़ार है

रखिए गिर्द-ओ-पेश पर अपने नज़र

गुल के पहलू में वह देखें ख़ार है

जिस की नज़रों में बराबर हों सभी

मुल्क-ओ-मिल्लत का वही मे'मार है

हक़ ने दी है आप को वह अक़्ल-ए-कुल

जो मोहब्बत की अलम-बरदार है

आओ मिल-जुल कर उसे हम तय करें

ज़िंदगी का जो सफ़र दुश्वार है

भाई चारे की फ़ज़ा क़ाएम करें

आप का 'बर्क़ी' यही ग़म-ख़्वार है

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